चिंता का विषय तो होना ही चाहिए कि इधर भौतिकता के मलवे पर आ बैठी हैं मनुष्य विरोधी विडम्बनाएं। उन्हें अंतरिक्ष में घर बनाने के सपने देखने वाले मनुष्य ने ही स्वयं आमंत्रित किया है स्वर्ग को नरक में तब्दील कर नए स्वर्ग की खोज में। समय नहीं है दौड़ से बाहर हो यह देखने परखने के लिए उसके पास कि आखिर उसका मूल अर्जन क्या है और क्या होना चाहिए था।
विचारणीय मुद्या यह भी है कि स्त्री विमर्श और दलित विमर्श जैसे ज्वलंत मुद्यों पर पिछले कुछ वर्षों से हो रहे फार्मूला बद्ध लेखन और बौद्धिक वागजाल के मकड़जाल के चलते हिन्दी साहित्य परिवर्तित समय की उन आहटों की ओर से आँख कान मूंदे हुए है जिसके संक्रमण से संक्रमित मानवीय प्रवृत्तियाँ उस तलछट से मुँह मोड़े हुए है जहाँ विषमताओं को खत्म करने के लिए कृतसंकल्प उसका संघर्ष उनकी ही कब्रों पर नयी विषमताओं के प्रेतों को साध रहा है। आईने में कुछ भी धुधला नहीं रहा। क्षत विक्षत सुदृढ़ भारतीय कौटुम्बीय जीवन क्षूब्ध अवााक गहरे यह महसूस कर रहा है कि भूमंडली करण और उदारीकरण के दौड़ में जहाँ पूरा विश्व अपनी सरहदों से मुक्त हो विश्वग्राम के व्यापकत्व का हिस्सा हो रहा है वहीं बाजारवाद और उपभोक्तावाद के शिकंजे में कसता हुआ आत्मकेन्द्रित संवेदना क्षरित मुष्य क्षुद्र और बौना।
कलानाथ मिश्र का सजग रचनाकार अपनी समाज सापेक्ष दृष्टि से उन आहटों को निरन्तर टोह और सुन रहा है जिसे सुना जाना और गुना जाना समय रहते बहुत जरूरी है। उसी जरूरत की अनिवार्यता से जनमती हैं -'दो कमरे का मन` जैसी अद्भुत कथा-रचना। मनुष्य और प्रकृति की परस्परता की सदियों पुरानी अदम्य ललक से अभिव्यक्ति पाती है उनकी मर्मस्पर्शी मनोवैज्ञानिक कहानी 'आम का पेड़`।
बाजाड़वाद और अंधे अँधेरेां की उपभोक्तावादी मानसिकता की काली परछाइयाँ 'मोक्ष`,'डालर पुत्र`, 'तेजाब`, 'पार्क` जैसी उनकी अन्य बाँधे रखने वाली गझिन कथा-रचनाओं के मर्म में सघनता से प्रतिबिंबित हुई हंै। जीवन मूल्यों की वापसी के लिए संघर्षरत उनकी यह सार्थक कथायात्रा निश्चय ही ताजे हवा के झोंके-सी आश्वस्तकारी है। हिन्दी कथा-संसार को इस उर्जावान कथाकार से बहुत उम्मीदें हैं।
चित्रा मुद्गल, प्रख्यात कथालेखिका
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